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Sunday 23 September 2018

Tuesday 11 September 2018

वो दिन पार्ट4

क्या आपने बचपन में तीन पहिए वाली लकड़ी की गाड़ी पकड़कर चलना सीखा या किसी बच्चे को चलते देखा है ?



तब वॉकर नहीं थे साहब चलना सीखने को बच्चों को वो तीन पहिए की गाड़ी फेमस थी , जो आजकल भी कहीं कहीं बिकती तो है पर लेने वाले नहीं मिलते ।

 जो पालना आप बाजार से खरीदकर बच्चों को झुलाते हो , क्या आपने कभी देखा है गांव में एक छोटी चारपाई जिसे खटोला कहते हैं उसके चार पाए को रस्सी से बांधकर उसी को पालना बनाकर माँ अपने बच्चे को रस्सी से झुलाती हुई ।


वो साइकिल के पहिए से निकले खराब टायर को छोटी सी लकड़ी का टुकड़ा लेकर दौड़ाना , और देखना चल किसकी गाड़ी आगे निकलती है ।

एक खेल था शायद बहुतों ने नाम भी न सुना हो 'हुर का दंड' ये खेल सिर्फ और सिर्फ गाँव में ही खेला जाने वाला खेल था जो विलुप्त से हो गया , क्योंकि इसे खेला जाता था जहाँ पेड़ अधिक हों , एक बच्चा एक लकड़ी ( दंड) को अपनी टाँगों के नीचे से फेंकता था और उस सहित बाकी सभी आसपास के पेड़ों पर चढ़ जाते थे , जिस पर दांव होता था उसे किसी भी एक बच्चे को छूना होता था पर शर्त ये थी कि उसे उस फेंकी हुई लकड़ी की हिफाजत भी करनी होती थी यानी वो किसी एक को छूने गया दूसरे ने पेड़ से उतर कर लकड़ी ले ली तो फिर से दांव उसी पर और लकड़ी तक किसी के पहुँचने में वो छू लिया तो दांव दूसरे पर ।


हालांकि अन्य भी कई खेल धीरे धीरे विलुप्ति की कगार पर हैं जैसे कंचा गोली , गुल्ली डंडा, छान छान चलनी आदि

चोर सिपाही और सामूहिक रस्सी कूद व लँगड़ी टांग भी अब लगभग खत्म से हैं ।


सावन के महीने में किसी भी गाँव मे जाते थे तो शायद ही किसी पेड़ की मजबूत डाली होती थी जिस पर झूला न पड़ा हो । क्या छोटे बच्चे, बच्ची और क्या उस गाँव की बड़ी बेटियां जो सावन में मायके आई हुई होती थीं मिलकर झूले का लुत्फ उठाते थे , साथ साथ गाने भी गाए जाते थे एक गाना तो बड़ा फेमस था ''झूला तो पड़ गए , अमुआ की डाल पे जी" ।

आज के समय में कहीं भी जाओ झूले तो शायद मिल जाएं एक दो जगह पर वो आपसी तालमेल वो हँसी ठिठोली वो मस्ती अब वो बात नहीं ।


आपने देखे हों या न देखे हों पर पुराने समय में मेले भी बहुत ही मस्त हुआ करते थे आधुनिक कुछ नहीं था । झूला जिसे लोग रहँट भी बोलते थे लकड़ी का बना हुआ जिसे झूले वाले धक्के देकर ही चलाते थे ।


मेले की पहचान जलेबी हुआ करती थी मतलब मेले गए और जलेबी न खाई या घर न लाए तो कैसा मेला ? बच्चों के लिए मेले में जाना और खिलौने न लाना ऐसा कैसे हो सकता है पर जरा ध्यान दीजिए खिलौने ज्यादातर लकड़ी और मिट्टी के बने हुए ही मिलते थे ।


इन खिलौनों में जैसे जान होती थी , आजकल बच्चे नए नए आधुनिक खिलौनों जो रिमोट से चलते हैं उनसे भी उतने खुश नहीं होते जितना वो मिट्टी और लकड़ी से बने खिलौने उस समय बच्चों को मनोरंजन देते थे । लड़कियों की वो घर में ही कपड़ों से बनी गुड़िया गुड्डा तो कमाल थे बस पूछिए मत ... 

वो दिन भी क्या दिन थे 

                     ........ क्रमशः
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Monday 10 September 2018

वो दिन पार्ट 3

क्या आपके समय की बात है ?


जब कैमरे में एक रील ड़ाला जाता था जिसमें मात्र 36 फोटो ही खींचे जा सकते थे , किसी भी प्रोग्राम के फोटो लेने में फोटोग्राफर को कुछ लाइन कई कई बार और कई लोगों से सुननी पड़ती थीं जैसे "यार फ्लैश मारकर तो खुश नहीं कर दिया" और "कैमरा में रील तो डाली है ना , भूल तो नहीं गया "



साहब उस समय पढ़ाई का बड़ा क्रेज था पढ़ाई वो भी कॉमिक्स की , किराए पर लाई जाती थीं 2 तू ला और 2 मैं लाता हूँ कल धीरू की और सोनू की बारी है , मतलब किराए पर कॉमिक्स लाकर सारे दोस्त बदल बदल कर एक ही दिन में छः सात कॉमिक्स निपटा देते थे । और अगर पढ़ाई के दिनों में कॉमिक्स के साथ पकड़े गए तो घर में भूचाल आ जाता था और शिकायत तो सभी दोस्तों के घरों तक सेकेंडो में पहुंच जाती थी , मतलब एक पकड़ा तो सब गए ।


शाम ढलते ही पढ़ाई के लिए रोशनी के साधन मिट्टी के तेल की लेम्प, और लालटेन हुआ करती थीं, थोड़ा स्टैंडर्ड अच्छा है तो पेट्रोमैक्स (गैस वाला हंडा) जिनके मेन्टल हिलने भर से या कीड़ों के टकराने से तुरंत टूट जाया करते थे , दो चार मेन्टल पहले से रखे रहते थे इसी वजह से , गर्मियों के दिन में पेट्रोमैक्स की गर्मी में पढ़ाई करना बड़ा मुश्किल था , एक तो कीड़े बहुत आते थे ऊपर से पसीने में तरबतर , और गर्मी में पढ़ाई का मतलब नींद के झोंके आना तुरंत शुरू , और फिर जिसको नींद के झोंके आ रहे उसको देख अगल बगल सबका खिलखिलाना ।


स्कूल से आते ही बस्ता फेंका खाना वाना इतना जरूरी नहीं था जितना जरूरी थी क्रिकेट , बस बहाना भर ढूँढते थे फील्ड तक पहुंचने का , जो घर से नहीं निकला उसे बुलाने दोस्त यार घर तक पहुंच जाते थे । बल्ले तो किसी किसी पर ही थे और बॉल के लिए होता था चंदा । विकेट का काम हमेशा ईंट लगाकर ही होता था , और कभी कभी तो दीवार पर लाइन बनाकर भी , जहाँ कीपर की भी जरूरत नहीं होती थी । अब खिलाडियों की संख्या विषम होने पर एक बनता था बीच का कौआ जिसे कभी कभी डबल फायदा होता था दोनों साइड से बैटिंग का और कभी कभी नंबर ही नहीं आता था । यहाँ नियम भी अपने खुद के होते थे अगर बॉल को जोर से मारा तो चौका और छक्का तो हो ही सकता था साथ साथ आउट भी संभव था अगर बॉल निषिद्ध क्षेत्र में गई मतलब आउट और अब बॉल भी वही उठाकर लाएगा ।

हादसे भी अक्सर हो ही जाते थे किसी के हाथ मे बॉल लगना तो किसी के पैर में , कभी ऊँगली चोटिल तो कभी अँगूठा । एक बार तो बाउंड्री पर खड़े छोटे बच्चे के दिल पर बॉल लगी और वो बेहोश , शॉट मारने वाले को फरार कर दिया मतलब घर भेज दिया और बच्चे को लेकर सीधा डॉक्टर पर थोड़ी टेंशन बाद में जय हो प्रभु सब ठीक हुआ, और दो दिन बाद फिर से वही सब कुछ खेल शुरू ।

घरों के सीढ़ियां न हुईं क्लास रूम हो गए , जिसे देखो सीढ़ियों पर ही पढ़ने बैठता था अपने कमरों में नहीं , अब 4 या 6 इकट्ठे बैठे हों तो पढ़ाई कैसी होगी सब जानते ही होंगे खैर हर चीज का अपना स्वाद और मजा होता है ।

हमारे दोस्त तो तहकीकात जैसे जासूसी धारावाहिक देख देख कर जासूस स्टाइल के हो गए थे कौन क्या कर रहा है, कहाँ जा रहा है , किससे किसकी दोस्ती और किससे किसकी लड़ाई सब खबरें साहब खबरी लाल के पास । और तो और ये नाम भी कोड वर्ड में लिखा करते थे । जैसे A को 1 और B को 2 , पूरे पूरे नाम कोडिंग में ।

ग्रुप लॉबी भी खूब हुआ करती थी जैसे अपने मोहल्ले में अपने ही मोहल्ले वालों को खिलाने की कोशिश फालतू लोगों की एंट्री बेन , हालाँकि एक दो को ग्रीन कार्ड भी दे रखा था जो अपनी मोहल्ले में कम और इनके मोहल्ले में ज्यादा खेला करते थे ।

अब ना तो खाली प्लाट रहे ना ही वो बड़े मैदान हर तरफ घनी बस्ती नजर आती है जिन जगहों पर चोर सिपाही खेलते खेलते जाने कहाँ कहाँ पहुँच जाते थे वहाँ गलियां और घर ही नजर आते हैं । नई पीढ़ी खेले भी तो कहाँ खेले , शहरों के हालात तो ऐसे हैं कि एक ही मैदान में पाँच या 7 क्रिकेट मैच चल रहे होते हैं मैदान के साइज के हिसाब से , एक हम थे जो बोलते थे इस मैदान पर हम खेलते हैं तुम दूसरे पर जाकर खेल लो । खेत खाली प्लॉट खाली कहीं भी ईंट लगाई खेल शुरू ।

घर के खेलों में आज की ही तरह लूडो, चेस, कैरम , चक्कन पै और चाइनीज चेकर के साथ साथ सही और कट्टा व राजा मंत्री चोर सिपाही खेलने में मजा आता था । छुपन छुपाई की बात ही कुछ और थी नाम था आस पास धप्पा ।

                                ..............   क्रमशः
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Sunday 9 September 2018

वो दिन पार्ट 2

क्या आपके सामने ये सब हुआ है ?

आप सोचकर देखिए वो पुरानी यादें , मन प्रफुल्लित हो उठेगा , एक रोमांच सा जेहन में उतर आएगा । खुद ही सोचेंगे ऐसा भी हुआ था कभी , बच्चों को बताओगे तो उन्हें यकीन न आएगा ।

 कम ही घरों में टीवी हुआ करती थी , टीवी वो भी ब्लैक एंड व्हाइट , दूरदर्शन के प्रसारण को देखने के लिए एंटीना एडजस्ट करना होता था , घर की छत पर एंटीना सही करने वाला एक, दूसरा बाहर खड़ा होकर निर्देश देने वाला और तीसरा टीवी पर चित्र साफ हुए या नहीं देखने वाला , आवाज छत से "आई क्या" , "अरे नहीं थोड़ा और घुमा " , "आई आई अरे पहले वाली साइड में ले थोड़ा , हाँ आ गई ", यहीं फिक्स करके उतर आ ।

सन सतासी दूरदर्शन पर रामायण का प्रसारण पूरे गांव में एक टीवी , बिजली तो कहीं कहीं थी तो टीवी बैटरी से चलती थी , बैटरी के चार्ज होने की फिक्र बैटरी वाले से ज्यादा सारे गाँव वालों को हुआ करती थी ।

याद है मामा जी का वो गाँव जहाँ ट्रैक्टर के बोनट पर रखकर उसकी बैटरी से टीवी पर रामायण का चलना और ट्रैक्टर के सामने पूरे गाँव की भीड़ एक टक निगाह टीवी पर ।
 जिस दिन ट्रैक्टर खेत से आधा घंटे पहले ना पहुंचा तो सबको फिकर कहीं रामायण ना निकल जाए , बुलाने के लिए साइकिल सवार खेतों की दौड़ लगाते जुताई रुकवाकर ट्रैक्टर का वापस आना और सबका खुशी से चिल्लाना "आ गया आ गया "।

यही हालात रामायण के बाद दूरदर्शन पर रिलीज हुए दूसरे धारावाहिक महाभारत के साथ हुए । आज जब आप सोच भी नहीं सकते कि सिर्फ टीवी देखने दूसरे के घर जाना , उस समय लोग बुला लिया करते थे अरे मेरे पास व्यवस्था है आ जाना और साथियों को भी लेते आना , फॉर्मेलिटी तो जैसे थी ही नहीं कहीं , पैसा कम था पर दिल बहुत बड़े ।

समय बदला हालात बदल गए घर घर घर टीवी आ गईं , बिजली का दायरा बढ़ने लगा घरों में टीवी के साथ पंखे भी आ गए ।
 वो दौर भी आया जब चन्द्रकान्ता, और शक्तिमान जैसे धारावाहिकों ने खूब लुभाया। रविवार को सुबह जल्दी तैयार होकर सीधा टीवी के सामने सुबह 7 बजे रंगोली के मधुर गानों।से शुरुआत करके धारावाहिक और कार्टून आदि लगभग 12 बजे तक और उसके बाद साप्ताहिक फ़िल्म शाम के समय , फिर से संडे का इंतजार ।

 बीच बीच में कई जासूसी धारावाहिक जैसे एक दो तीन चार, सुपर सिक्स, व्योमकेश बख्शी, और तहकीकात का क्रेज बस देखने लायक होता था , तब बिजली जाने पर जिनके घरों में बैटरी होती थीं वहाँ की तरफ निकल आते थे बच्चे ।

पुराने लोगों को याद होगा गर्मियों में छत पर सोने के लिए पहले से दो बाल्टी पानी डालकर आना जिससे छत थोड़ा ठंडी हो जाए , और अपनी अपनी जगह निश्चित कर लेना कि कौन कहाँ सोएगा , बच्चे बच्चे एक साइड बड़े बड़े एक साइड , छत से मिली छत , अड़ोसी पड़ोसी से गप शप के बाद सुकून भरी नींद ।

आज के दौर में ऐसी हैं , कूलर हैं , किसी का छत पर जाकर सोने का मन नहीं होता , प्राइवेशी नाम के एक शब्द ने तो एक दूसरे के पास जाना ही कम कर दिया है ।

उस समय में डॉट फोन सिर्फ अपने नहीं पूरे मोहल्ले के नंबर हुआ करता था , पी पी नंबर देने में भी लोग अपने आप पर गर्व करते थे और रिश्तेदारों को बोल देते थे जब भी जरूरत हो फोन कर लेना । फोन आते भी थे और फिर एक बच्चा दौड़कर बुलाने जाता था अंकल जी आपका फोन आया है , जल्दी आओ वो 5 मिनट बाद फिर से करेंगे । और आज आदमी मोबाइल लेकर भी दूसरे से बात कराने न जाए , लगभग हर घर मे मोबाइल हैं और कुछ घरों में लगभग हर हाथ मे मोबाइल हैं ।

किसी भी बड़े फंक्शन या पार्टी के समय रात में दुकान वाले से VCR बुक करके आना वो भी कलर टीवी के साथ और एक साथ तीन या चार फिल्मों की कैसेट । पूरा कमरा भीड़ से ठसा ठस । फिर भी और लोगों के समाने की जगह दिल मे बहुत थी ।

रेडियो पर प्रसार भारती , गानों से पहले बताना कि इस गाने की फरमाइश की है बबलू, गुड्डू , गुड़िया और साथियों ने । कई घरों में टेप रिकॉर्डर पर बजते गाने , कैसेट में छाँट छाँट कर गाने रिकॉर्ड करा के लाना । यहां तक कि आपस मे कुछ समय के लिए कैसेटों का अदल बदल भी हुआ करता था ।

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                       ...... क्रमशः

वो दिन पार्ट 1

कुछ धुंधला धुंधला सा याद है सब कुछ जो गुजर गया । याद हैं कुछ मीठी मीठी सी बातें और कुछ कड़वे से पल जो भूल जाना ही बेहतर है । यादें तो अच्छी संजोना ही अच्छा लगता है ।
जिए हैं हमने वो लम्हे जो आने वाले भविष्य में लोग शायद ना ही जी पाएँगे , देखें हैं वो माहौल जो उनको नसीब न हो पाएँगे ।
जी हाँ हम अस्सी के दशक में जन्मे और गाँव से जुड़े कस्बो और शहर में रहने वाले वे लोग जिन्होंने हर तरह की जिंदगी को करीब से देखा है । देखी हैं वो खुशिया वो माहौल वो प्यार वो दुलार जो आज के रिश्तों में दिखाई ही नहीं देता ।

वो दिन भी क्या दिन थे साहब पैसा कम था खुशियाँ ज्यादा , गाँव में बिजली तो नहीं थी मगर सुकून बड़ा था , परेशानियां बहुत थीं मगर इंसान आज से ज्यादा सुखी था ।

आज भी याद है वो बचपन जब गर्मी की छुट्टियों का इंतजार सभी बच्चों को होता था , जाना होता था अपने गांव या नानी के घर । और ये इंतजार हमें ही नहीं उनको भी होता था जिनके पास हम जाने वाले होते थे । और छुट्टियां खत्म होते होते फिर से आपस में सभी कजिन के वादे अगली छुट्टियों में फिर से यहीं मिलेंगे । फोन तो थे नहीं तब तो पहले ही मिलने की प्लानिंग हो जातीं थीं और घर वाले कहीं भी जाएं मगर हमें वहीं जाने दें जहां हमें मजा आता है जिद मतलब जिद ।

आज हालात कुछ ऐसे हैं कि 1 घण्टे बिजली ना आए तो तुरंत परेशानी होने लगती है इन्वर्टर है मगर बिजली आने का इंतजार है बच्चों को बिना ऐसी नींद नहीं आती और बच्चे गाँव जाना पसंद ही नहीं करते , उनका तो चलता है बस कार्टून , कैरम, लूडो वो भी लिमिटेड पेरेंट्स खेलने दें तब ना । सभी पैरेंट्स को बच्चा क्लास में पहले नंबर पर चाहिए ।

एक समय था , कक्षा में पास होना होता था मतलब पास बस  , न तो मोटी मोटी किताब कॉपी थीं न इतना भारी बस्ता , माँ बाप की अभिलाषा जरूर होती थी कि हमारा बच्चा पढ़े मगर ऐसी जिद न होती थी कि मार्क्स कितने आएं ।

 पढ़ाई की शुरुआत होती थी पहले एक लकड़ी की पट्टी को काला घोंटा करके उस पर खड़िया से अ आ इ ई लिखने से जिसे ओलम कहा जाता था । काली लकड़ी की घोंटा लगी पट्टी लेकर जाते थे गाँव के स्कूल के विद्यार्थी ओर साथ ले जाते थे बैठने को एक बोरी । कुर्सी बस मास्टर साहब के लिए ही हुआ करती थी । उस काली पट्टी पर खड़िया गीली कर धागे से सीधी लाइन बनाना और फिर लिखना । अंग्रेजी के A और B यो पता भी नहीं होते थे । पढ़ाई की आवाज तो स्कूल से 100 मीटर दूरी पर सुनाई पड़ जाए , छोटे अ से अनार बड़े आ से आम छोटी इ से इमली और बड़ी ई से ईख , कोई दूर से भी समझ ले कि यहाँ क्लास लग रही है ।



थोड़ा स्तर बढ़ा तो स्लेट और चौक से पढ़ाई जारी रही , मास्टर जी के हाथ मे डंडा होता था जो सिर्फ दिखाने को नहीं सजा बदस्तूर देता था और किसी को उस सजा पर आपत्ति भी नहीं थी । सर्दियों में मास्टर जी धूप के खुले मैदान में तो गर्मियों में पेड़ की छांव में क्लास लगाया करते थे ।


बात अगर अच्छे स्कूलों की करें तो उनमें कक्षा कमरों में लगती थीं और बैठने को सुतली से बनी टाट की पट्टियाँ स्कूल द्वारा ही मुहैया कराई जाती थीं , क्लास में दीवार पर एक जगह को काला करके बोर्ड बना होता था और मास्टर जी के पास चोक और डस्टर ।  बच्चों को लाने ले जाने के लिए स्कूल रिक्शों का इंतजाम अच्छे स्कूलों में ही होता था ।

अंग्रेजी की पढ़ाई यूपी बोर्ड में कक्षा 6 से शुरू होती थी जबकि कक्षा 5 और कक्षा 8 के बोर्ड के पेपर हुआ करते थे । और ये बोर्ड के पेपर भी बड़े अजीब होते थे एक ही दिन में एक के बाद एक लगातार पेपर बोर्ड ना हुआ हउआ हो गया ।

पढ़ाई के साथ साथ खेल भी हुआ करते थे लंच ब्रेक में पॉपुलर खेल कबड्डी , डऊ (कबड्डी का ही दूसरा रूप) , पैदा मारना आदि मशहूर खेल थे । लड़कियों में खो खो का अपना अलग जी मजा था ।


कक्षा 8 में बोर्ड की परीक्षा पास किए हुए बच्चों को एक नई बीमारी मिलती थी जो आज भी है तू कौन सी साइड लेगा साइंस साइड या आर्ट साइड जिसे समझ न आने पर ऑक्साइड बोलते थे बच्चे क्योंकि पेरेंट्स उतने पढ़े तो नहीं यह आज की बात अलग है शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है

                                                ...... क्रमशः


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Thursday 6 September 2018

भारत बंद 6 सितंबर SCST Act के विरोध में

6 सितंबर भारत बंद

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने SCST Act के दुरुपयोग को देखते हुए , एक न्याय की बात रखी कि SCST Act तो ठीक है परंतु उसके तहत निर्दोष लोगों को प्रताड़ना न झेलनी पड़ी अतः पहले जाँच की कार्यवाही करके दोषी को जेल भेज दिया जाए , जिसके विरोध में SCST के संगठनों ने भारत बंद का आव्हान किया ।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध जाकर भाजपा की  मोदी सरकार ने वोट बैंक को देखते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विरुद्ध जाकर कानून पास किया जो और भी अधिक कड़ा कर दिया गया । जिसकी वजह से तुरंत ही इसके दुरुपयोग के कुछ मामले मीडिया में आ गए ।

सामान्य वर्ग, ओबीसी वर्ग, अल्पसंख्यक वर्ग आदि ने इस कानून को काला कानून करार दिया जिसके कारण किसी भी निर्दोष को आसानी से महीनों के लिए उसकी बेगुनाही साबित करने तक जेल में रहना पड़े , इसी कानून के विरोध में विभिन्न संगठनों ने 6 सितंबर 2018 को शांतिपूर्ण ढंग से भारत बंद का आव्हान किया ।

भारत बंद में शहरों के अलावा छोटे कस्बा भी शामिल हुए , कुछ एक जगह पर लोगों में आपसी झड़प भी देखने को मिलीं ।

कुल मिलाकर भारत के उत्तरी राज्यों में भारत बंद पूर्ण रूप से सफल दिखाई दिया । भाजपा के मंत्री , प्रतिनिधि , व अन्य नेता सरकार के इस कानून पर असहज महसूस कर रहे हैं ।

हालांकि लोगों के बीच मोदी के खुद को पिछड़ा बोलने की चर्चा जोर पकड़ रही है , अब लोग कहने लगे हैं कि मोदी ने पिछड़ा होने की वजह से जानबूझ कर SC ST Act में सामान्य वर्ग की अनदेखी कर पक्षपात का कार्य किया है ।

इस मुद्दे पर कोई भी विपक्षी दल खुलकर सामान्य वर्ग के साथ आने के मूड में नहीं दिखाई दिया क्योंकि उनको भी पिछड़ा वोट बैंक खिसकने का खतरा दिखाई दे रहा है । हालाँकि काँग्रेस सहित सभी विपक्षी पार्टी घुमा फिराकर मोदी सरकार को इस मुद्दे पर  घेरने में जुटी रहीं ।

बात उठी है तो दूर तक जाएगी , बात आर्थिक आधार पर आरक्षण तक आएगी ।

लगभग सभी व्यापारी संगठनों ने बन्द का खुला समर्थन करते हुए बाजार बन्द रखे ।

बन्द का आव्हान करने वाले संगठनों ने बंद को पूर्ण सफल घोषित करते हुए , भविष्य में काले कानून के विरुद्ध लड़ाई लड़ते रहने का फैसला किया है । 

डलहौजी , हिमाचल प्रदेश


डलहौजी , हिमाचल प्रदेश 


धौलाधार पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित 'डलहौजी' एक बहुत की मनमोहक पर्यटन स्थल है। यह हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में स्थित है ।

अंग्रेजों के तत्कालीन वायसराय लार्ड डलहौजी के नाम पर इस जगह का नाम डलहौजी रखा गया। 






डलहौजी में भूरी सिंह संग्रहालय स्थित है यहां आकर सुंदर चित्रों को देख सकते हैं। इस संग्रहालय में मूल्‍यवान शारदा लिपि भी रखी हुई है। डलहौजी की जलवायु साल भर सुखद रहती है। मार्च से जून महीने में घूमने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय है । सर्दियों में यहां का तापमान 1 से 10 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है और बर्फबारी होती है।

डलहौजी क्षेत्र में कई पर्यटन स्‍थल हैं जहां पर्यटक घूमने जा सकते हैं। सेंट फ्रांसिस चर्च, सेंट जॉन चर्च आदि प्रसिद्ध चर्च हैं। सुभाष बाओली में भारत की आजादी के लिए अजीत सिंह और सुभाष चंद्र बोस ने कई प्रयास किए थे। त्रिउंद, देनकुंड, खज्जियार, चंबा, व पंचपुला जैसे रमणीक पॉइंट हैं ।




पंचपुला में एडवेंचर प्‍वांइट हैं जिप लाइन , रोक क्लाइम्बिंग ,ट्रेकिंग , कैम्पिंग , वेली क्रासिंग आदि एडवेंचर पर्यटकों के बीच लोक प्रिय हैं। पंचपुला वाटर फॉल पर खानपान , बच्चों के झूले आदि की भी सुविधाएँ हैंI पंचपुला मार्ग में सतधारा फाल भी पड़ता है ।





डलहौजी, दिल्ली से 563 , अमृतसर से 191 , चंबा से 56 और चंडीगढ़ से 300 किमी. की दूरी पर है। निकटतम एयरपोर्ट पठानकोट डलहौजी से 80 किमी. की दूरी पर है। ट्रेन के लिए पठानकोट रेलवे स्‍टेशन नजदीक है । बस से आने वालों को दिल्‍ली या चंडीगढ़ से बस मिल जाएगी।

खज्जियार, हिमाचल प्रदेश


      
खज्जियार, हिमाचल प्रदेश  
भारत का मिनी स्विट्जरलैंड

हिमाचल प्रदेश का ख़ूबसूरत पहाड़ी पर्यटन स्थल है। चीड़ और देवदार के ऊँचे-लंबे, हरे-भरे पेड़ों के बीच बसा खज्जियार जिसे भारत का 'मिनी स्विटजरलैंड' भी कहते हैं। यह हिमाचल प्रदेश की चम्बा बेली में स्थित है ।

खज्जियार आने के लिए चंबा या डलहौज़ी से आधा घंटे का समय लगता है। एक हरी भरी चीड़ और देवदार के पेड़ों से घिरी हुई छोटी और अतिमनमोहक पिकनिक स्पॉट जिसे देखने दूर दूर से लोग आते हैं ।
एक ऐसा पर्यटन स्थल जो छोटा जरूर है मगर जिसकी लोकप्रियता बड़े बड़े हिल स्टेशन को भी मात देती नजर आती है ।

 तश्तरी के आकार का खज्जियार का मैदान जो हरी भरी घास और बीच मे छोटी सी झील से सुसज्जित है आगंतुकों को एक विशाल और लुभावनी छटा का अनुभव देता है ।

खज्जियार को आधिकारिक तौर पर 7 जुलाई, 1992 को स्विस राजदूत द्वारा 'मिनी स्विटरजरलैंड' के नाम से नवाजा गया था ।
 खज्जियार पठानकोट रेलवे स्टेशन से लगभग 95 किमी और जिला कांगड़ा में गगल हवाई अड्डे से 130 किलोमीटर दूर है।
खज्जियार लोकप्रिय खजजी नागा मंदिर के लिए प्रसिद्ध है जिसे सर्प देव को समर्पित किया गया है, जहां से माना जाता है कि यह नाम पड़ा है । 






 पास ही भगवान शिव की अति विशाल मूर्ति के दर्शन का लाभ अवश्य लें 85 फुट की भगवान शिव की यह प्रतिमा अद्भुत और भव्य नजर आती है ।




एडवेंचर पसंद पर्यटकों के लिए भी पैराग्लाइडिंग, जॉर्बिंग, हॉर्स राइडिंग इत्यादि प्रमुख एडवेंचर उपलब्ध हैं ।

यहाँ जाने वाले पर्यटकों को बताना चाहेंगे क्योंकि डलहौजी बहुत ही नजदीक है तो डलहौजी , कालाटोप, डैन कुंड पीक, पंचपुला जैसी रमणीक हिल स्टेशन पॉइंट्स जाकर देखना ना भूलें ।



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