Header Ads Widget

Responsive Ads Here

Tuesday 11 September 2018

वो दिन पार्ट4

क्या आपने बचपन में तीन पहिए वाली लकड़ी की गाड़ी पकड़कर चलना सीखा या किसी बच्चे को चलते देखा है ?



तब वॉकर नहीं थे साहब चलना सीखने को बच्चों को वो तीन पहिए की गाड़ी फेमस थी , जो आजकल भी कहीं कहीं बिकती तो है पर लेने वाले नहीं मिलते ।

 जो पालना आप बाजार से खरीदकर बच्चों को झुलाते हो , क्या आपने कभी देखा है गांव में एक छोटी चारपाई जिसे खटोला कहते हैं उसके चार पाए को रस्सी से बांधकर उसी को पालना बनाकर माँ अपने बच्चे को रस्सी से झुलाती हुई ।


वो साइकिल के पहिए से निकले खराब टायर को छोटी सी लकड़ी का टुकड़ा लेकर दौड़ाना , और देखना चल किसकी गाड़ी आगे निकलती है ।

एक खेल था शायद बहुतों ने नाम भी न सुना हो 'हुर का दंड' ये खेल सिर्फ और सिर्फ गाँव में ही खेला जाने वाला खेल था जो विलुप्त से हो गया , क्योंकि इसे खेला जाता था जहाँ पेड़ अधिक हों , एक बच्चा एक लकड़ी ( दंड) को अपनी टाँगों के नीचे से फेंकता था और उस सहित बाकी सभी आसपास के पेड़ों पर चढ़ जाते थे , जिस पर दांव होता था उसे किसी भी एक बच्चे को छूना होता था पर शर्त ये थी कि उसे उस फेंकी हुई लकड़ी की हिफाजत भी करनी होती थी यानी वो किसी एक को छूने गया दूसरे ने पेड़ से उतर कर लकड़ी ले ली तो फिर से दांव उसी पर और लकड़ी तक किसी के पहुँचने में वो छू लिया तो दांव दूसरे पर ।


हालांकि अन्य भी कई खेल धीरे धीरे विलुप्ति की कगार पर हैं जैसे कंचा गोली , गुल्ली डंडा, छान छान चलनी आदि

चोर सिपाही और सामूहिक रस्सी कूद व लँगड़ी टांग भी अब लगभग खत्म से हैं ।


सावन के महीने में किसी भी गाँव मे जाते थे तो शायद ही किसी पेड़ की मजबूत डाली होती थी जिस पर झूला न पड़ा हो । क्या छोटे बच्चे, बच्ची और क्या उस गाँव की बड़ी बेटियां जो सावन में मायके आई हुई होती थीं मिलकर झूले का लुत्फ उठाते थे , साथ साथ गाने भी गाए जाते थे एक गाना तो बड़ा फेमस था ''झूला तो पड़ गए , अमुआ की डाल पे जी" ।

आज के समय में कहीं भी जाओ झूले तो शायद मिल जाएं एक दो जगह पर वो आपसी तालमेल वो हँसी ठिठोली वो मस्ती अब वो बात नहीं ।


आपने देखे हों या न देखे हों पर पुराने समय में मेले भी बहुत ही मस्त हुआ करते थे आधुनिक कुछ नहीं था । झूला जिसे लोग रहँट भी बोलते थे लकड़ी का बना हुआ जिसे झूले वाले धक्के देकर ही चलाते थे ।


मेले की पहचान जलेबी हुआ करती थी मतलब मेले गए और जलेबी न खाई या घर न लाए तो कैसा मेला ? बच्चों के लिए मेले में जाना और खिलौने न लाना ऐसा कैसे हो सकता है पर जरा ध्यान दीजिए खिलौने ज्यादातर लकड़ी और मिट्टी के बने हुए ही मिलते थे ।


इन खिलौनों में जैसे जान होती थी , आजकल बच्चे नए नए आधुनिक खिलौनों जो रिमोट से चलते हैं उनसे भी उतने खुश नहीं होते जितना वो मिट्टी और लकड़ी से बने खिलौने उस समय बच्चों को मनोरंजन देते थे । लड़कियों की वो घर में ही कपड़ों से बनी गुड़िया गुड्डा तो कमाल थे बस पूछिए मत ... 

वो दिन भी क्या दिन थे 

                     ........ क्रमशः
                                         वो दिन पार्ट1 पढ़ें
                                         वो दिन पार्ट2 पढें
                                         वो दिन पार्ट3 पढ़ें



No comments:

Post a Comment

DEKHO YAAR

 Stories कहानियां टिड्डा और चींटी की कहानी (एक व्यंग्य) एक प्रेरक वाकया बड़ी दुकान का सामान जरूरी नहीं सही मिले शरारती छात्र की श...